रक्षासूत्र बांधते समय एक श्लोक का उच्चारण करते हैं , जिसमें रक्षाबन्धन का सम्बन्ध राजा बलि से स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है । यह श्लोक रक्षाबंधन का अभीष्ट मंत्र है ।
" येन बद्धो बलि: राजा दानवेन्द्रो महाबलः।
तेन त्वामभिबध्नामि रक्षेमाचल मा चल॥ "
अर्थात – जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बलि को बांधा गया था , उसी रक्षाबन्धन से मैं तुम्हें बांधता हूं जो तुम्हारी रक्षा करेगा। रक्षाबंधन का त्यौहार श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। रक्षाबंधन में राखी या रक्षासूत्र का सबसे अधिक महत्व है। राखी कच्चे सूत से लेकर रंगीन कलावे , रेशमी धागे , तथा सोने या चांदी जैसी मंहगी वस्तु तक की हो सकती है। राखी सामान्यतः बहनें भाई को उनकी रक्षा की कामना के साथ बांधती हैं।
सनातन संस्कृति में प्रकृति संरक्षण के लिए वृक्षों को राखी बांधने की परंपरा भी प्राचीन समय से चली आ रही है। सनातन परम्परा में किसी भी कर्मकांड व अनुष्ठान की पूर्णाहुति बिना रक्षा सूत्र बांधे पूरी नहीं होती। प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर लड़कियाँ और महिलाएँ पूजा की थाली सजाती हैं। थाली में राखी के साथ कुमकुम या हल्दी , चावल , दीपक , मिष्ठान होते हैं। पहले अभीष्ट देवता और कुल देवता की पूजा की जाती है , इसके बाद कुमकुम या हल्दी से भाई का टीका करके उसकी आरती उतारी जाती है , दाहिनी कलाई पर राखी बांधी जाती है भाई बहन को उपहार आथवा शुभकामना प्रतिक धन देता है और उनकी रक्षा की प्रतिज्ञा लेता है। यह एक ऐसा पावन पर्व है जो भाई – बहन के पवित्र रिश्ते को पूरा आदर और सम्मान देता है। रक्षाबंधन के अनुष्ठान के पूरा होने तक व्रत रखने की भी परंपरा है। पुरोहित तथा आचार्य सुबह सुबह ही यजमानों के घर पहुंचकर उन्हें राखी बांधते हैं और बदले में धन वस्त्र और भोजन आदि प्राप्त करते हैं। यह पर्व भारतीय समाज में इतनी व्यापकता और गहराई से समाया हुआ है कि इसका सामाजिक महत्व तो है ही , धर्म , पुराण , इतिहास , साहित्य भी इसके वर्णन से भरे पड़े है । सगे भाई बहन के अतिरिक्त अनेक भावनात्मक रिश्ते भी इस पर्व से बंधे होते हैं जो धर्म , जाति और देश की सीमाओं से भी परे होते हैं।
गुरू शिष्य को रक्षासूत्र बाँधता है तो शिष्य गुरू को। भारत में प्राचीन काल में जब स्नातक अपनी शिक्षा पूरी करने के पश्चात गुरुकुल से विदा लेता था तो वह आचार्य का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए उसे रक्षा सूत्र बाँधता था जबकि आचार्य अपने विद्यार्थी को इस कामना के साथ रक्षासूत्र बाँधता था कि उसने जो ज्ञान प्राप्त किया है वह अपने भावी जीवन में उसका समुचित ढंग से प्रयोग करे ताकि वह अपने ज्ञान के साथ साथ आचार्य की गरिमा की रक्षा करने में भी सफल हो। इसी परंपरा के अनुरूप आज भी किसी धार्मिक विधि विधान से पूर्व पुरोहित यजमान को रक्षा सूत्र बाँधता है और यजमान पुरोहित को। इस प्रकार दोनों एक दूसरे के सम्मान की रक्षा करने के लिए परस्पर एक दूसरे को अपने बंधन में बाँधते हैं।
अमरनाथ की अतिविख्यात धार्मिक यात्रा गुरुपूर्णिमा से प्रारंभ होकर रक्षाबंधन के दिन संपूर्ण होती है। कहते हैं इसी दिन यहाँ का हिमानी शिवलिंग भी पूरा होता है। इस दिन अमरनाथ गुफा में प्रत्येक वर्ष मेला भी लगता है। व्रज में हरियाली तीज ( श्रावण शुक्ल तृतीया ) से श्रावणी पूर्णिमा तक समस्त मंदिरों एवं घरों में ठाकुर झूले में विराजमान होते हैं। रक्षाबंधन वाले दिन झूलन दर्शन समाप्त होते हैं।
एक पौराणिक प्रसंग के अनुसार राखी का त्योहार कब शुरू हुआ यह कोई नहीं जानता। लेकिन भविष्य पुराण में वर्णन है कि देव और दानवों में जब युद्ध शुरू हुआ तब दानव हावी होते नज़र आने लगे। भगवान इन्द्र घबरा कर बृहस्पति के पास गये। वहां बैठी इंद्र की पत्नी इंद्राणी सब सुन रही थी। उन्होंने रेशम का धागा मंत्रों की शक्ति से पवित्र कर के अपने पति के हाथ पर बांध दिया। वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। लोगों का विश्वास है कि इंद्र इस लड़ाई में इसी धागे की मंत्र शक्ति से विजयी हुए थे। उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन यह धागा बांधने की प्रथा चली आ रही है । यह धागा धन , शक्ति , हर्ष और विजय देने में पूरी तरह सामर्थ माना जाता है ।
वामन अवतार और रक्षाबंधन।
स्कन्ध पुराण , पद्मपुराण और श्रीमद्भागवत में वामनावतार नामक कथा में रक्षाबन्धन का प्रसंग मिलता है। कथा कुछ इस प्रकार है- दानवेन्द्र राजा बलि ने जब 100 यज्ञ पूर्ण कर स्वर्ग का राज्य छीनने का प्रयत्न किया तो इन्द्र आदि देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। तब भगवान ने वामन अवतार लेकर ब्राह्मण का वेष धारण कर राजा बलि से भिक्षा मांगी। गुरु के मना करने पर भी बलि ने तीन पग भूमि दान कर दी। भगवान ने तीन पग में सारा आकाश पाताल और धरती नाप कर राजा बलि को रसातल में भेज दिया। इस प्रकार भगवान विष्णु द्वारा बलि राजा के अभिमान को चकानाचूर कर देने के कारण यह त्योहार ‘ बलेव ‘ नाम से भी प्रसिद्ध है। कहते हैं कि जब बलि रसातल में चला गया तब बलि ने अपनी भक्ति के बल से भगवान से रात दिन अपने सामने रहने का वचन ले लिया। भगवान के घर न लौटने से परेशान लक्ष्मी जी को नारद जी ने एक उपाय बताया। उस उपाय का पालन करते हुए लक्ष्मी जी ने राजा बलि के पास जाकर उसे रक्षाबन्धन बांधकर अपना भाई बनाया और अपने पति भगवान विष्णु को अपने साथ ले आयीं। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी।
विष्णु पुराण के एक प्रसंग में कहा गया है कि श्रावण की पूर्णिमा के दिन भागवान विष्णु ने हयग्रीव के रूप में अवतार लेकर वेदों को ब्रह्मा के लिए फिर से प्राप्त किया था। हयग्रीव को विद्या और बुद्धि का प्रतीक माना जाता है।
राखी को शास्त्रोक्त विधि से बांधना ही उचित होता है , क्योंकि भद्रा के आने से शुभ और अशुभ का विचार करना होता है। ध्यान रहे कि रक्षाबंधन , भैय्या दूज आदि पर्वो में पंचक नक्षत्र का कहीं भी विचार नहीं किया जाता है। भद्रा में रक्षासूत्र बांधने से हो सकती है परेशानी – निर्णय सिंधु के अनुसार ” भद्रायां द्वे न कर्तव्ये श्रावणी फाल्गुनी ” अर्थात भद्रा में रक्षाबंधन बांधने से प्रजा का अशुभ होता है और होलिका दहन करने से राजा के लिए अशुभ होता है।
उपाकर्म संस्कार।
इसके अतिरिक्त इस दिन पौरोहित्य कर्म से जुड़े ( दान दक्षिणा लेने वाले , यजमान के निमित्त पूजा पाठ करने वाले ) ब्राह्मणों का विशेष पर्व श्रावणी उपाकर्म भी होता है। साधु – संतो , ब्राह्मणों , पूजा – पाठ आदि कर्म से जुड़े कर्मकांड़ियों के बीच यह पर्व श्रावणी के नाम से विख्यात है। यज्ञोपवीतधारी ब्राह्मणों के लिए यह दिन अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस दिन यजुर्वेदी द्विजों का उपकर्म होता है। दूध , दही , घी , गोबर और गऊ मूत्र मिलाकर पंचगव्य बनाते हैं और उसे पान करते हैं तथा हवन करते हैं। उत्सर्जन , स्नान – विधि , ऋषि – तर्पणादि करके नवीन यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। इसे उपाकर्म कहते हैं , ब्राह्मणों का यह सर्वोपरि त्यौहार माना जाता है । ऋषि – महर्षि उपाकर्म कराकर व्यक्तियों को विद्या – अध्ययन कराना आरम्भ करते हैं। वृत्तिवान् ब्राह्मण अपने यजमानों को यज्ञोपवीत तथा राखी देकर दक्षिणा लेते हैं। बीते वर्ष के पुराने पापों को पुराने यज्ञोपवीत की भांति त्याग देने और स्वच्छ नवीन यज्ञोपवीत की भांति नया जीवन प्रारंभ करने की प्रतिज्ञा ली जाती है। इस दिन यजुर्वेदीय ब्राह्मण 6 महीनों के लिए वेद का अध्ययन प्रारंभ करते हैं। इस पर्व का एक नाम उपक्रमण भी है जिसका अर्थ है- नई शुरूआत। उपाकर्म संस्कार कराकर जब व्यक्ति अपने घर लौटते हैं तब बहनें उनका स्वागत करती हैं और उनके दाएँ हाथ में राखी बाँधती हैं। इस विधान से भी श्रावणी शुक्ल पूर्णिमा को रक्षाबन्धन का त्योहार मनाया जाता है ।
सनातन संस्कृति कि आदर्श परिवार व्यवस्था में विधि-विधान त्योहार यज्ञ और मनुष्य के जन्म से लेकर अंत तक सभी 16 संस्कारों का एक अति महत्वपूर्ण पहलू परिवार और समाज में हर एक संबंध की पवित्रता को बढ़ाने और साथ में अपने अपने स्वीकृत पारिवारिक और सामाजिक धर्म की पहचान को स्थापित करने का अति महत्वपूर्ण कार्य करते है।
अस्तु।