उत्तर प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री और गोरखनाथ के महंत योगी आदित्यनाथ के कार्यकाल में आगामी 5 अगस्त को श्री राम की जन्म स्थली अयोध्या में एक लंबे संघर्ष के बाद जब भव्य राम मंदिर का निर्माण होने जा रहा है तब योगी जी, लालकृष्ण आडवाणी जी की और योगी जी के गुरु रहे अवैद्यनाथ की एक तस्वीर सामने आई है।
गोरखपुर मंदिर का इतिहास।
उत्तर प्रदेश के पूर्वोत्तर में नेपाल को लग के एक जिला है गोरखपुर। 11वीं शताब्दी में बाबा मत्स्येंद्र नाथ की तपस्या से ज्ञान अर्जित करने वाले गुरु गोरखनाथ के नाम से इस जिले का नाम गोरखपुर पड़ा है। गोरखनाथ (गोरखनाथ मठ) नाथ परंपरा में नाथ मठ समूह का एक मंदिर है। मुगल काल के शासन के दौरान इस मंदिर को नष्ट करने की कई बार कोशिश की गई थी। खिलजी ने 14वीं सदी में गोरखनाथ मंदिर को नष्ट कर दिया और बाद में इसे 18 वीं सदी में भारत के इस्लामी शासक औरंगजेब ने नष्ट किया था। 19 वीं सदी की दूसरी छमाही में स्वर्गीय महंत दिग्विज्य नाथ और महंत अवेद्यनाथ द्वारा इसकी अवधारणा की गई थी। नाथ संप्रदाय की मान्यता के अनुसार सच्चिदानंद शिव के साक्षात स्वरूप ‘श्री गोरक्षनाथ जी’ सतयुग में पेशावर (पंजाब) में, त्रेतायुग में गोरखपुर, उत्तरप्रदेश, द्वापर युग में हरमुज, द्वारिका के पास तथा कलियुग में गोरखमधी, सौराष्ट्र में आविर्भूत हुए थे। प्राचीन काल से चले आ रहे नाथ संप्रदाय को गुरु मच्छेंद्र नाथ और उनके शिष्य गोरखनाथ ने पहली बार व्यवस्था दी थी। गोरखनाथ ने इस संप्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। गुरु और शिष्य को तिब्बती बौद्ध धर्म में महासिद्धों के रूप में जाना जाता है।
महंत दिग्विजय नाथ
विनायक दामोदर सावरकर जब हिंदू महासभा के अध्यक्ष बने तब गोरखनाथ मंदिर के माथापति दिग्विजय नाथ सन 1937 में खुद हिंदू महासभा में जुड़ गए और यूनाइटेड प्रोविंस में पार्टी के अध्यक्ष भी रहे। वैसे तो गोरक्षपीठ ने ब्रिटिश काल के दौरान ही मुक्ति की जंग छेड़ दी थी। सन 1949 में हुए श्री राम जन्मभूमि आंदोलन में महंत श्री दिग्विजय नाथ ने सक्रिय भूमिका निभाई थी और उनके नेतृत्व में ही श्री राम लल्ला की मूर्ति बाबरी ढांचा में प्रस्थापित की गई। भारत कि आजादी के पश्चात प्रधानमंत्री नेहरु जब हिंदू कोड बिल लेकर आए तब गोरखनाथ के मठ आदि पाते बाबा दिग्विजय नाथ ने पुरजोर विरोध किया और पहली बार हिंदू महासभा के टिकट पर कांग्रेस के खिलाफ चुनाव भी लड़े। गोरक्षपीठाधीश्वर महंत दिग्विजयनाथ ने 28 सितंबर 1969 को अयोध्या में श्री रामजन्मभूमि पर मंदिर बनाने की अदम्य इच्छा के साथ समाधि ली।
महंत अवेद्यनाथ।
महंत दिग्विजय नाथ के उत्तराधिकारी महंत अवेद्यनाथ ने भी गोरक्षपीठाधीश्वर बनने के तुरंत बाद घोषणा की कि श्री राम जन्मभूमि की मुक्ति तक शांति से नहीं बैठेंगे। महंत अवेद्यनाथ का मानना था कि देश में राजनीतिक बदलाव किए बिना उनका लक्ष्य हासिल नहीं होगा। महंत अवैद्यनाथ जी ४ भार सांसद रहे बाद में उन्होंने अपना ध्यान हिंदू समाज के संगठन पर केंद्रित किया। 1980 में, महंत अवेद्यनाथ ने राजनीति से संन्यास ले लिया, लेकिन मंदिर निर्माण के लिए उनका संघर्ष जारी रहा। 1984 में, उन्होंने एक बड़ी सफलता हासिल की। लगातार कोशिश करने के बाद, वह आखिरकार देश के शैव-वैष्णवों को एक मंच पर लाने में कामयाब रहे। श्री राम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति का गठन किया गया। महंत अवेद्यनाथ इसके आजीवन अध्यक्ष रहे। दूसरी ओर, देश में श्री राम मंदिर आंदोलन के लिए जनता का समर्थन जुटाने का अभियान शुरू हुआ।
दूसरी ओर अयोध्या में कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए, जन्मभूमि पर पुलिसकर्मियों ने विवादित ढांचे के आंतरिक आंगन के दरवाजे बंद कर दिए। जनता को पूजा के लिए अंदर जाने से रोक दिया गया था। 24 सितंबर 1984 को बिहार के सीतामढ़ी से श्री राम जानकी रथ यात्रा निकाली गई। 6 अक्टूबर 1984 को रथ अयोध्या पहुंचा। 7 अक्टूबर 1984 को हजारों रामभक्तों ने अयोध्या में सरयू नदी के तट पर हल किया। प्रयाग और अन्य स्थानों पर भी ऐसी ही बैठकें हुईं। 8 अक्टूबर 1984 को, जब रथ यात्रा लखनऊ पहुंची, तो सम्मेलन बेगम हजरत महल पार्क में आयोजित किया गया, जिसमें 10 लाख से अधिक लोग शामिल हुए। 175 संप्रदायों के 850 धर्माचार्य 31 अक्टूबर और 1 नवंबर 1985 को कर्नाटक के उडुपी में आयोजित धर्मसंडाओं के दूसरे सत्र में शामिल हुए।
गोरखनाथ संस्कृत विद्यापीठ के पूर्व छात्र और वर्तमान में, जेएनयू, दिल्ली के संस्कृत और प्राथमिक अध्ययन संस्थान के संकाय प्रमुख प्रो संतोष शुक्ला कहते हैं कि महंत का अवेद्यनाथ के सभी भक्तों से बहुत अच्छा संबंध था। धर्म में सभी की उपस्थिति इस बात का प्रमाण थी। भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद के शोध विद्वान डॉ। सचिन राय ने ‘श्री रामजन्म भूमि आन्दोलन और गोरक्षपीठ’ विषय पर अपने शोध आलेख में कहा है कि इस धर्म में यह निर्णय लिया गया था कि यदि ताला नहीं खोला गया तो हजारों साधु देश भर से अपने लाखों शिष्यों के साथ 9 मार्च 1986 से सत्याग्रह करेंगे। दिगंबर अखाड़े के महंत परमहंस रामचंद्रदास ने घोषणा की कि यदि तब तक ताला नहीं खोला गया तो वह आत्महत्या कर लेंगे। सत्याग्रह के संचालन के लिए महंत अवेद्यनाथ को अखिल भारतीय संयोजक नियुक्त किया गया। 51 प्रमुख भक्तों से युक्त एक अखिल भारतीय संघर्ष समिति का गठन किया गया था। 1 फरवरी 1986 को फैजाबाद के जिला न्यायाधीश ने विवादित ढांचे के दरवाजे पर ताला खोलने का आदेश दिया, तब महंत अवेद्यनाथ वहां मौजूद थे।
यह फैसला सुनाने वाले जिला न्यायाधीश कृष्ण मोहन पांडे गोरखपुर के जगन्नाथपुर इलाके के थे। कहा जाता है कि इस फैसले के बाद, वह तत्कालीन सरकार से नाराज हो गए और उन्हें ग्वालियर उच्च न्यायालय में स्थानांतरित कर दिया गया। 1995 में सेवानिवृत्त होने के बाद, कृष्ण मोहन पांडे ने ” द वॉयस ऑफ कॉन्शियस ” पुस्तक लिखी, जिसमें उन्होंने उल्लेख किया कि अयोध्या में श्री राम मंदिर कहे जाने के स्थान के बारे में उन्होंने जो निर्णय लिया, वह उनका विवेक था।
नाथ पंथ के विद्वान और महाराणा प्रताप पीजी कॉलेज के प्राचार्य डॉ प्रदीप राव ने बताया कि उस निर्णय के बाद, महंत अवेद्यनाथ और अन्य धर्माचार्यों के आह्वान पर घर-घर दीप जलाए गए। 22 सितंबर 1989 को, उनकी अध्यक्षता में, विराट हिंदू सम्मेलन दिल्ली में आयोजित किया गया था। इसमें 9 नवंबर, 1989 को जन्मभूमि पर शिलान्यास कार्यक्रम की घोषणा की गई थी। महंत अवेद्यनाथ ने तय समय पर एक दलित से शिलान्यास कर आंदोलन को सामाजिक समरसता से जोड़ने का विरल कार्य किया था।
2012 में प्रकाशित महंत अवेद्यनाथ की पुस्तक में उल्लेख किया गया कि जब उन्होंने 1989 में हरिद्वार के संत सम्मेलन में मंदिर निर्माण की तिथि घोषित की, तो तत्कालीन गृह मंत्री बूटा सिंह और मुख्यमंत्री नरेंद्र दत्त तिवारी ने उनसे मुलाकात की। बूटा सिंह इसे स्थगित करना चाहते थे। यह कहा जाता है कि बूटा सिंह की पूरी बात सुनने के बाद, महंत अवेद्यनाथ ने जवाब दिया कियह निर्णय करोड़ों लोगों के लिए है। ’जब उन्होंने निर्माण शुरू करने के लिए अयोध्या जाने के लिए दिल्ली छोड़ा, तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।
मंदिर पर सरकार के साथ गोरक्ष पीठाधीश्वर का संघर्ष जारी रहा। 23 जुलाई 1992 को उनके नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव से मिला। आखिर 30 दिसंबर 1992 को दिल्ली में आयोजित पांचवें धर्म संसद में 6 दिसंबर 1992 को मंदिर के निर्माण के लिए कारसेवा शुरू करने का निर्णय लिया गया। उसको उसके बाद क्या हुआ यह भारत ही नहीं पूरा विश्व जानता है।
महंत अवैद्यनाथ जैसे कई हिंदू हितेषी संत महापुरुषों के सजीव के संघर्ष के बाद आखिरकार 1992 में विवादास्पद बाबरी ढांचे को तोड़ा गया। वैसे तो देश 1947 में आजाद हुआ था लेकिन ऐसा लगा कि 1000 साल के संघर्ष के बाद मानो सन 1992 में हिंदु अस्मिता का पुनर्जन्म हुआ।
महंत योगी आदित्यनाथ
30 साल की लंबी न्यायिक लड़त में विजय हासिल करते हुए आखिर में वह दिन आ ही गया जब अगले 5 अगस्त को अयोध्या में प्रभु श्री राम के जन्म स्थल पर एक भव्य राम मंदिर का निर्माण होगा। योगानुयोग आज उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री अयोध्या में श्री राम जन्मभूमि के लिए निरंतर संघर्ष करने वाले वही गोरखनाथ मंदिर के महंत और बाबा अवैद्यनाथ के उत्तराधिकारी योगी आदित्यनाथ – योगीजी है।
अस्तु।